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राजा विक्रमादित्य पर शनिदेव की साढ़ेसाती - राजा विक्रमादित्य और शनिदेव की कथा

उज्जैन नगरी के राजा विक्रमादित्य

उज्जैन नगरी के राजा विक्रमादित्य

यह कथा राजा विक्रमादित्य की है जो उज्जैन नगरी के राजा थे। एक समय की बात है की सूर्य, चंद्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु यह नवग्रह आपस में झगड़ने लगे कि हम सब में से सबसे बड़ा कौन है। हर ग्रह अपने को बड़ा बताने लगे कि सबसे बड़ा मैं हूं, जब आपस में निर्णय नहीं कर पाए तो झगड़ते हुए इंद्रदेव के पास गए। कहने लगे कि आप सभी देवताओं के राजा है इसलिए हमारा न्याय करके बताइए कि हम 9 ग्रहों में सबसे बड़ा ग्रह कौन हैं। भगवान यह प्रश्न सुनकर घबरा गए और कहने लगे कि यह बताना मेरे लिए बहुत कठिन है कि किसी को बड़ा या छोटा बतलाऊं परंतु एक उपाय हैं। इस समय पृथ्वी पर एक राजा विक्रमादित्य सबके दुखों दूर करने वाले हैं इसलिए तुम लोग उनके पास जाकर अपने प्रश्न का उत्तर मांगो। वही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देंगे । सभी ग्रह देवता पृथ्वी लोक में राजा विक्रमादित्य के सभा में जाकर उपस्थित हुए। अपनी समस्या राजा से कही और उनकी समस्या को सुनकर राजा बड़ी सोच में पड़ गए कि हम अपने मुंह से किस को छोटा और किसको बड़ा बताएं। जिसे छोटा कहूंगा वह तो क्रोधित होगा लेकिन झगड़ा समाप्त करने के लिए राजा के दिमाग में एक उपाय सूझा और कहा कि सोना, कांसा, पीतल, रजत, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक, और लोहा  आदि नौ  धातुओं के लिए नौ आसन बनवाए गए। जिसके बाद राजा ने कहा कि आप लोग अपने अपने आसनों पर बैठ जाएं जिसका आसन आगे होगा वह सबसे बड़ा जिसका पीछे वह सबसे छोटा होगा। सबसे पीछे का आसन  लोहे का था।

 
इसलिए  शनिदेव समझ गए कि राजा ने मुझे सबसे छोटा कहा है और उन्हें बहुत क्रोध आया और राजा से कहा कि तुम मेरे पराक्रम को नहीं जानते की सूर्य राशि पर एक माह, चंद्रमा पर सवा दो दिन, बृहस्पति 13 महीने, मंगल पर डेढ़ महीना, शुक्र पर एक एक महीना और राहु-केतु दोनों उल्टे चलते हुए केवल 18 महीने एक राशि पर रहता हूं, परंतु में एक ही राशि पर 3 महीने तक रहा हूं। जिसने मुझे वरदान दिया उसे भी मैंने नहीं छोड़ा बड़े-बड़े देवताओं को भी मैंने नहीं छोड़ा भविष्य में दुख दिया। जब राम भगवान पर साढ़ेसाती आई  तो वनवास हुआ, रावण पर आई तो राम लक्ष्मण ने लंका पर चढ़ाई की जिससे कि रावण के भूल का नाश हुआ, तब विक्रमादित्य ने कहा कि जो मेरे भाग्य में लिखा है वह होकर रहेगा। बाकी सभी ग्रह खुशी पूर्वक वहां से चले गए। किंतु शनिदेव बड़े ही क्रोधित होकर वहां से चले गए। जब कुछ काल बीत गया तो राजा पर  साढ़ेसाती की दशा आई


राजा विक्रमादित्य पर शनिदेव की साढ़ेसाती 

तब शनि देव घोड़े के सौदागर बनकर अपने सुंदर-सुंदर घोड़ों के साथ राजा के राज्य में आए, राजा के सैनिक ने सौदागर के आने की खबर राजा को बताई तो राजा ने अपने अश्वपाल को अच्छे-अच्छे घोड़े खरीदने को कहा और अच्छे नस्ल के घोड़े का दाम सुनकर अश्वपाल चौक गया और राजा को इस बात की सूचना दी। राजा घोड़ा खरीदने के लिए स्वंम आए और उसमें से एक अच्छा घोड़ा सवारी के लिए चुन लिया और जैसे ही उस घोड़े पर सवार हुए वह घोड़ा उनको जंगल में बहुत दूर ले गया। राजा को जंगल में छोड़ कर वह घोड़ा अंतर्ध्यान हो गया।  राजा जंगल में भटकते भटकते बहुत दूर चले गए, और भूखा प्यास से व्याकुल हो रहे थे। तभी उन्हें एक ग्वाला दिखाई दिया ग्वाले ने राजा विक्रमादित्य को पानी पिलाया और राजा ने अपनी उंगली से अंगूठी निकाल कर उस ग्वाले को दे दिया।
 
अब राजा आगे की ओर चल दिए जिस राज्य में राजा विक्रमादित्य पहुंचे वह राज्य राजा चंद्रसेन का था।  इन दोनों राज्यों में दुश्मनी थी क्योंकि राजा विक्रमादित्य ने चंद्रसेन को युद्ध में पराजित किया था और उन्हें मृत्युदंड ना देकर जीवनदान दिया। इसी बात पर चंद्रसेन  क्रोधित होकर अपने राज्य चला आया और जितने भी विक्रमा नाम के व्यक्ति थे उन सभी को फांसी लगवा दिया करता था। लेकिन शनि देव भगवान के क्रोध से राजा विक्रमादित्य राजा चंद्रसेन की नगरी में जा पहुंचे। वहां के लोगों को यह पता नहीं था कि यह राजा विक्रमादित्य है। वहां पर लोगों ने राजा को पागल समझ कर पत्थर मारने लगे मारो इसे ! मारो इसे ! यह पागल नगरी में कहां से गया। क्योंकि राजा विक्रमादित्य के कपड़े फटे हुए थे, हाथ पैर में से खून बह रहा था इसलिए सब प्रजा राजा विक्रमादित्य को पागल समझ रही थी।
राजा विक्रमादित्य पर हार चोरी का इल्जाम

राजा विक्रमादित्य पर हार चोरी का इल्जाम

तभी राजा विक्रमादित्य  के पास एक लकड़ी का व्यपारी आया और उन्हें अपने साथ ले गया। उस दिन उसकी दुकान पर बहुत ग्राहक आए और सेठ ने खुब धन कमाया। उस दिन उस दुकानदार की सारी लकड़ियां बिक गई। तो वह सेठ उस आदमी को भाग्यवान पुरुष समझ कर अपने घर भोजन कराने के लिए ले गया। भोजन करते समय राजा ने देखा की एक खूंटी पर हार लटक रहा है और वह खूंटी उस हार को निकल रही है। भोजन करने के पश्चात् सेठ को घर में वह हार ना मिला तो उसने सोचा कि इस व्यक्ति के अलावा मेरे घर कोई और नहीं आया है हो ना हो इसी व्यक्ति ने मेरे हार की चोरी की है। परंतु राजा ने मना किया कि मैंने कोई हार नहीं चुराया तो वहां पर सात आठ आदमी इकठ्टे हो गए और उसको लेकर राजा चंद्रसेन के पास लेकर गए।
 
राजा ने कहा शक्ल सूरत से तुम भले आदमी प्रतीत होते हो चोर नहीं लगते किंतु सेठ का कहना है कि तुम्हारे अलावा कोई और घर में नहीं था इसीलिए चोरी तुमने ही की है। तब राजा ने आज्ञा दी और राजा की आज्ञा का पालन किया गया। उसके हाथ-पैर कटवा दिए गए। कुछ काल व्यतीत होने पर एक तेली उसको अपने घर ले गया। और बीका को मतलब विक्रमादित्य को कोल्हू पर  बिठा दिया। बीका कोल्हू पर बैठा हुआ अपनी जुबान से बैल हकता रहा। अब राजा की साढ़ेसाती की दशा समाप्त हो गई। यह साढ़ेसाती राजा विक्रमादित्य की पत्नी की तपस्या और पूजा से समाप्त हुई। एक रात को वर्षा ऋतू के समय राजा विक्रमादित्य मल्हार राग गाने लगे तो उनका गाना सुनकर उस नगर की राजकुमारी गाने पर मोहित हो गई और अपनी सखी से कहा जाकर देखो तो यह कौन गा रहा है। तब उसे देखने के लिए सखी इधर उधर घूमती फिरती है और एक तेली के घर पहुंची उसने देखा कि एक चौरंगिया गा रहा है।  सखी ने महल जाकर राजकुमारी को बतलाया। राजकुमारी ने अपने मन में प्राण कर लिया कि मैं चौरंगिया से विवाह करूंगी।

राजा चंद्रसेन की पुत्री का विवाह

प्रातकाल राजकुमारी को दासी ने जगाया तो राजकुमारी ने कहा आज मेरा अनशन व्रत है। मैं नहीं उठूंगी यह बात दासी ने रानी को बताई तो रानी राजकुमारी के पास गई और कारण पूछा तो राजकुमारी ने कहा यह मैंने प्रण लिया है कि तेली के घर जो चौरंगिया है में उसी  से विवाह करूंगी। रानी ने कहा क्या तुम पागल हो गई हो तुम्हें पता भी है क्या कह रही हो। मैं तुम्हारा विवाह किसी राजा के साथ करवाउंगी लेकिन राजकुमारी कहने लगी कि मैंने प्रण किया है मैं उसी से शादी करूंगी। रानी ने तब राजा से कहा राजा ने भी यही समझाया कि हम तुम्हारा विवाह किसी देश के राजकुमार से करवाएंगे। तुम अपना प्रण तोड़ दो राजकुमारी ने कहा कि मैं अपने प्राण दे दूंगी लेकिन प्रण नहीं तोडूंगी। राजा ने कहा कि जैसी तुम्हारी इच्छा जो भाग्य में लिखा होगा वही होगा।
 
राजा ने तेली को बुलाकर कहा कि जो तुम्हारे यहां चौरंगिया है उसके साथ  मैं अपनी पुत्री का विवाह करना चाहता हूं। तब तेली ने कहा ऐसा कैसे हो सकता है आप इतने बड़े राजा और कहां हम नीच तेली लेकिन बीका ने मना कर दिया उन्होंने कहा ऐसा नहीं हो सकता है लेकिन राजा ने अपनी लड़की का विवाह राजा विक्रमादित्य के साथ कर दिया। रात्रि को विक्रमादित्य और राजकुमारी महल में सोए थे।  तो आधी रात के समय शनिदेव ने विक्रमादित्य को स्वप्न दिखाया कि राजा तुमने मुझे छोटा बताकर कितना दुख उठाया। राजा ने क्षमा मांगी शनिदेव ने खुश होकर राजा को हाथ पैर दिए। तब राजा बोले शनिदेव मेरी आपसे एक प्रार्थना है कि मेरे जैसा दुख आप किसी को ना दे।

शनिदेव की कृपा
शनिदेव की कृपा

शनिदेव ने कहा तुम्हारी यह प्रार्थना स्वीकार है तब शनिदेव ने कहा जो मनुष्य मेरी कथा सुनेगा या कहेगा मेरी दशा में किसी को किसी प्रकार का दुख नहीं होगा। जो मेरा प्रतिदिन ध्यान करेगा या चींटियों को आटा डालेगा उसकी सब मनोकामना पूर्ण होंगी। इतना कहकर शनिदेव अंतर्ध्यान हो गए। इस बीच राजकुमारी की आंख खुली और उसने देखा कि राजा के हाथ पैर सही हो गए हैं राजा ने राजकुमारी को अपना सब हाल बताया। मैं उज्जैन का राजा हूं। मेरा नाम विक्रमादित्य है। यह सुनकर राजकुमारी बहुत खुश हुई। सुबह राजकुमारी ने सखियों को अपने पति का वृत्तांत सुनाया।

जब सेठ ने यह सुना तो वह राजा के पास गया और उनसे माफी मांगने लगा। राजा के पैरों पर गिरकर कहने लगा कि मैंने आपको चोरी का झूठा दोष लगाया था। आप जो चाहे वह दंड दे सकते हैं। तब राजा ने कहा कि मुझ पर शनिदेव का प्रकोप था इस कारण मुझे इतना दुख प्राप्त हुआ इसलिए इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। तुम अपने घर जाओ। तब सेठ ने कहा कि मेरी आत्मा को शांति तभी मिलेगी जब आप मेरे घर प्रतिभोज  करेंगे। राजा ने कहा ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी। सेठ ने अपने घर जाकर कई प्रकार के सुंदर और स्वादिष्ट भोजन बनवाएं और राजा को प्रीतिभोज करवाया।

सेठ का माफी मांगना और उसकी कन्या का विवहा

जिस समय राजा भोजन कर रहे थे उसी समय उन्होंने एक आश्चर्यजनक घटना सबको दिखाई कि जो खूंटी हार को पहले निकल गई थी वह अब उगल रही थी। जब भोजन समाप्त हो गया तब सेठ  ने हाथ जोड़कर राजा को बहुत सी मोहरे दी और कहा कि हमारी एक कन्या है उसका नाम श्री कंबरी है। उसका पानी ग्रहण करें इसके बाद सेठ ने अपनी कन्या का विवाह राजा के साथ कर दिया और बहुत सा धन, दास -दासी आदि दिए। इस प्रकार कुछ दिनों तक वहां रहने के पश्चात राजा विक्रमादित्य अपने राज्य जाने के लिए कहा और राजकुमारी और श्री कंबरी दोनों जगह के दहेज में मिले अपने धन और दास - दासी सहित राजमहल उज्जैन नगरी की ओर चल दिए। जब नगरवासियों ने राजा के आने का समाचार सुना तो समस्त उज्जैन की प्रजा स्वागत के लिए आई। राजा प्रसंता पूर्वक अपने महल में पधारे सारे नगर में बड़ा भारी उत्सव मनाया गया और रात्रि को दीपमाला जलाई गई। उस दिन राजा ने पूरे राज्य में यह सूचना करा दी कि शनिदेव सब ग्रहों में सर्वोपरि अर्थात सबसे बड़े हैं। मैंने इनको छोटा बतलाया था इसी कारण मुझको इतना दुख मिला। तब सारे नगर में राजा ने शनिदेव की पूजा और कथा करने को कहा। इस प्रकार उज्जैन नगरी की प्रजा शनिदेव की कृपा से सुखी से रहने लगी।

शनिदेव की पूजा कैसे करें ?

शनिवार के दिन पीपल के वृक्ष के नीचे एक लोटा जल डालें।  काली उड़द, सरसों का तेल, गुण, काला कपड़ा चढ़ाकर दीप जलाये और पीपल के वृक्ष की सात बार परिक्रमा करें।  ओम शनिश्चराय नमः का जाप करें। शनिदेव की कथा पढ़े और दूसरों को सुनाये। जो इस कथा को  सुनता है वह शनिदेव की कृपा से उसके समस्त दुख दूर हो जाते हैं। शनिदेव का पाठ शनिवार के दिन अवश्य करना चाहिए और काले कपड़े पहनने चाहिए। काली उड़द की दाल से खिचड़ी बनानी चाहिए।

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